कहानी संग्रह >> बाँस के फूल बाँस के फूलवासन्ती
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प्रस्तुत है तमिल की श्रेष्ठ नौ कहानियों का संग्रह.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस कहानी में मिजोरम प्रवास में आँखों देखी एक दुःखद घटना से है। मिजोरम
एक सुन्दर पहाडी क्षेत्र है यहाँ के लोग प्रायः सीधे प्रकृति के होते हैं।
लेकिन कहा जाता है कि वहाँ कि अनेक समस्याएँ मुख्यतः बाहर से आये कामकाजी
लोगों के कारण हैं। उनमें प्रायः स्थानीय लोगों और वहाँ के जीवन की समझ का
अभाव बताया जाता है। मिजोरम के जंगलों में बाँस अधिक होता है कहा जाता है
कि बारह वर्षों में एक बार बाँस में फूल आता है उसके बाद भयंकर अकाल पडता
है क्योंकि पहाड़ी चूहे उन फूलों को खा जाते हैं और फिर उनकी भूख और बढ़
जाती है और वे खेतों में उगे बिखरे अनाज के एक-एक दाने को चट कर जाते हैं।
सारांश यह है कि प्रकृति के कोप के सामने मनुष्य का कुछ वश नहीं चलता।
परन्तु अपने अहंकार के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच जो घृणा की दीवारें खड़ी
होती हैं, उसके लिए केवल वही जिम्मेदार है।
वापसी
मनीप्लाण्ट की फैली बेल ने जैसे उस खिड़की पर
परदा डाल
दिया है। हल्के हरे रंग की हरी नन्ही पत्तियाँ उग रही थीं और पुराने पत्ते
अब बदरंग होने लगे थे। धूल झाड़ती हुई मालती कुछ क्षणों के लिए रूकी और
रात भर में उग आयी कोंपलों को खिड़की की रेलिंग के इर्द-गिर्द लपटे दिया।
इस घर में जब वे लोग आये ही थे, महरी ने एक छोटा-सा टुकड़ा लाकर दिया था।
केवल चार पत्तों का वह टुकड़ा, जड़ पकड़कर इतनी जल्दी पत्तियाँ फैलाने लगा
है। अब तो इस खिड़की के लिए परदे की भी ज़रूरत नहीं रह गयी है। तेज़ धूप
में आरामदेह और आँखों को सुहानेवाला परदा। घर पर जो भी आता इसे देखकर चकित
हो जाता।
‘‘हाय, कितनी घनी बेल है यह !’’
‘‘यानी पैसे की कोई कमी नहीं, क्यों ?’’
वह हँसती, ‘‘क्यों, आपको ये पत्तियाँ नोट नज़र आती हैं ?’’ वह पूछती।
‘‘नोट हों या नहीं, कहते है जब यह बेल घनी होने लगे तो समझो घर में सम्पन्नता आ गयी ।’’
‘‘सम्पन्नता का मतलब धन से होता है क्या ?’’
वह हँसी-हँसी में बात छोड़कर पूरी दृढ़ता के साथ सर हिलाती, ‘‘न, मुझे तो क़तई नहीं लगता है कि धनी लोग के घर सम्पन्नता होती है ।’’
‘‘धन का होना ही तो सम्पन्नता है। ’’
‘‘नहीं।’’ फिर जैसे वह अपने आप में कहती हैः ‘‘मेरी माँ का घर धनी नहीं, पर मुझे लगता है वहाँ पूरी तरह सम्पन्नता है। पर मेरी ससुराल ! वहाँ अपार धन है फिर भी जाने मुझे क्यों लगता है। वहाँ सम्पन्नता है ही नहीं।’’
‘‘तुम एकदम ऊटपटाँग सोचती हो। तुम्हारी दृष्टि एकदम अलग जो है।’’ जब भी वह इस बेल को देखती है। उसे यह वार्तालाप याद आ जाता है और उसके होठों पर हँसी थिरकने लगती ।
‘‘दृष्टि तो आप लोगों की विचित्र है।’’ वह खुद से कहती।
‘‘हर चीज़ को रूपयों में तौलने वाली दृष्टि। मात्र सोने और हीरे को ही तौलनेवाली दृष्टि। जो हीरे का कर्ण फूल नहीं पहनता, उसकी सास सीधे मुँह उससे बात नहीं करती । आप जो मनुष्य को मनुष्य की तरह नहीं देखते, आप लोग ही विचित्र हैं।’’ वह मन ही मन बुदबुदाती।
‘‘मैं अपने बच्चों को आपकी दृष्टि नहीं दूँगी। मैं क़तई नहीं चाहती कि किसी चीज़ को देखकर उनको रूपये की याद आये। तौलकर सौदेबाज़ी करनेवाली बुद्धि, हरी बेल को देखकर उसे भी रूपये से जोड़नेवाली दृष्टि मैं नहीं चाहती ।’’
उसे अपना गाँव, घर, पूरी चहारदीवारी को अपनी घनी छाँह से ढकनेवाला पीपल, झूला सहसा याद आ गये। पीपल पर रहने वाले उन रंग-बिरंगे अनाम पक्षियों की याद आ गयी। बग़ीचे के कोने में एक नल लगा था। बाबू जी काम पर जाने के पहले उसमें ट्यूब लगा देते और क्यारियों में छोड़ जाते, पानी से कई धाराएँ निकलतीं और पानी पीने के लिए पीपल से ढेरों पक्षी उतर आते। कितने पक्षी, वह कइयों के नाम तक नहीं जानती। गहरे लाल, हल्के पीले और मोरपंखी ! उनके कलरव से बाग़ गूँजता और वे पानी में अठखेलियाँ करते रहते। सारा का सारा दिन उन्हें देखते गुज़ार देने की इच्छा होती।
बाबू जी तरह-तरह के फूल वाले पौधे लगाते। तितलियाँ उनकी खोज में आतीं। उनका पीछा करते हुए भागना सुखद लगता था। उसे लगता कि इस तरह के माहौल को जिसने भी नहीं भोगा वे ही इस मनीप्लाण्ट के दीवाने होते हैं। और ऊपर से इस बेल और रूपये के बीच गाँठ लगाकर खुश हो लेते हैं। रूचि से भी कैसी सौदेबाज़ी है यह ?
उसी गमले में एक लोटा पानी देकर वह अपने रोज़मर्रा के कामों में लग गयी। सास जी खाना खाकर सुस्ता रही थीं। उसे सूर्या को बस स्टाप से लाना है। उसने चौक का किवाड़ भिड़ा दिया। शीशे के सामने बिन्दी ठीक की और चप्पल पहनकर निकल गयी। बाहर का किवाड़ धीमे से बन्द किया और सीढ़ियाँ उतरने लगी।
अभी गली के नुक्कड़ पर भी नहीं पहुँची थी कि सूर्या की बस आ गयी। वह तेज़ क़दमों से चलने लगी। सूर्या आराम से उतर गया और उसे देखकर धीमे से हँस दिया। उसका सुन्दर चेहरा सूख गया था। उसे जैसे सहसा कुछ याद आ गया, ‘‘माँ आज तूने टिफ़िन के लिए तीन पराँठे क्यों रखे दिये ? मैंने तो दो के लिए कहा था’’
‘‘मैंने समझया दो तो काफ़ी नहीं है।’’
‘‘मुझसे तो तीसरा खाया ही नहीं गया, माँ।’’
‘‘चलो कोई बात नहीं ।’’
‘‘तुम्हीं तो कहती हो कि कभी कोई चीज़ बेकार नहीं करनी चाहिए।’’
उसने हँसते हुए उसकी कमर पकड़कर अपने से सटा लिया।
‘‘ठीक है, तो ये बेकार नहीं जाएँगे। महरी को दे दूँगी, बस !’’
उसे जैसे तसल्ली मिल गयी और चुपचाप चलने लगा।
‘‘माँ, हमारे स्कूल में एक पेड़ है। उसमें आज अचानक फूल खिल आए हैं। जानती हो माँ कितने सुन्दर हैं वो?’’
‘‘कौन-सा फूल है ?’’
‘‘नाम तो नहीं पता माँ। सफ़ेद और लाल है ! सच माँ इतने सुन्दर हैं, तुम्हें नहीं बता सकता।’’
उसने मुस्कराते हुए उसे देखा।
‘‘तो मेरे लिए एक फूल तोड़कर ला दोगे ?’’
‘‘यही तो बड़ी मुश्किल है माँ।’’ उसका चेहरा गम्भीर हो गया। ‘‘पेड़ पर जो खिले हैं। मेरे हाथ थोड़े न पहुँचेंगे वहाँ तक ?’’
‘‘ठीक है। रहने दो’’
‘‘माँ, भगवान् उन सुन्दर चीज़ों को इतनी ही ऊँचाई पर रखता हैं न !’’ उसने उसे आश्चर्य से देखा। ‘‘नहीं तो !’’
‘‘हाँ,’’ उसने दृढ़ता से कहा।
‘‘चन्दा को देखो। तारे, आकाश सबको देखो न माँ। क्या हम इन्हें छूँ सकते हैं ? नन्ही-सी गौरैया हो या तितली, छूने से पहले कैसे फुर्र से उड़ जाती हैं ?’’
हल्की खुशी भी हुई। वह भी उसी की तरह प्रकृति को परख सकता है, उसे प्यार कर सकता है। उसकी यह दिलचस्पी कुछ दिन और बनी रहेगी। जब तक बाप, दादी और बुआ की जोड़-बाकी वाली व्यावहारिकता इसे छू नहीं जाती। फिर इसकी प्रकृति भी वैसी ही होने लगेगी। इसकी दृष्टि तक पेड़, फूलों और आकाश को नहीं पहचान सकेगी।
मन व्याकुल हो गया। क्या कोई ऐसा रास्ता नहीं निकल सकता कि उसका मन इन छोटी बातों से ऊपर ही उठा रहे। माँ और बाबू जी की याद आ गयी। साथ ही उनकी याद से जुड़ा वह पीपल का पेड़, फूल और पक्षी याद आ गये। माँ की इच्छा थी कि बेटी के लिए तरह-तरह के गहने बनवाये जाएँ और उन्हें पहनाकर देख ले। बाबू जी वर्धा में रह चुके थे। अक्सर कहते, ‘‘अरी, भगवान् ने जो सुन्दरता दी है वह काफ़ी नहीं क्या ? उसे किसी गहने-वहने की ज़रूरत नहीं। समझी !’’
‘‘तो क्या उम्र भर वह तुम्हारे पास रहेगी ? सयानी हो गयी है। एकाध गहने भी नहीं बने तो करोगे क्या ?’’ माँ तर्क करतीं।
‘‘कोई तो आएगा जो सिर्फ़ उसके लिए उसे ब्याह कर ले जाएगा। तभी विवाह करूँगा उसका। मीनू, इस तरह की लड़की तो ढूँढ़े नहीं मिलेगी। इतनी पढ़ी-लिखी, सुशील और इतना साफ़ दिल कि प्रेम के अलावा कुछ देना भी नहीं जानती। पता है कितनी सादगी है उसमें !’’
घर आ गया । सूर्या गेट खोलकर भीतर भाग गया । ‘‘बाबूजी, आपको पता भी नहीं कि यहाँ सादगी का मतलब मूर्खता है। रूपये और गहने का मोह न रखनेवाली लड़की यहाँ मूर्ख समझी जाती है। आपको क्या मालूम इन रूढ़ियों के पार मैं कैसे ज़िन्दगी जी रही हूँ।’’
आँखों के आँसू वह भीतर ही पी गयी। अक्सर ऐसा क्यों होता है कि बेवजह आँखें भर आती हैं और भीतर से जैसे कोई बादल घुमड़कर भीतर आना चाहता है। अक्सर उसे आश्चर्य होता है।
अच्छी-भली तो हूँ मैं। इतना आरामदेह घर, बाहर जाने के लिए कार, रूपयों से भरा पर्स और भी कई सुविधाएँ जिनकी कल्पना भी उसने नहीं की होगी। सब कुछ तो है ससुराल में ! जब भी वह गहनों से लदी बाहर जाती तो पड़ोस की सरोज कुढ़ती, ‘‘कितनी भागवान है यह !’’ पर उस बेचारी को क्या पता कि मुझे इन गहनों का कोई मोह नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे खूँटी पर टँगे कोट का खूँटी से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ओह, सरोज नहीं समझ सकेगी यह सब ! यह निर्लिप्तता तो बाबूजी की दी हुई है।
कितना तुच्छ समझते थे बाबू जी पैसे को ! किस तरह बाबू जी ने कमाकर उसका विवाह करवाया होगा ! कभी वह समझ नहीं पायी। उनकी खुशक़िस्मती ही थी कि जैसे वे कहा करते थे ठीक उसी तरह उसकी सुन्दरता पर मुग्ध होकर लड़केवालों ने खुद पहल की थी ! उनकी माँग थी केवल सुन्दर और सुशील लड़की। ढेरों गहनों से उसे लाद दिया गया। और आज उन्हीं गहनों से उसकी आँखों में परदा डाल दिया है। अब न तो उन्हें उसकी सुन्दरता नज़र आती है, न ही उसके गुण।
उस दिन सूर्या की डायरी देखी तो पता लगा। अगले हफ़्ते उसकी परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं। चार दिनों तक चलेंगी। फिर बीस दिनों का शीतकालीन अवकाश। उसके मन में झट एक इच्छा उग आयी। क्यों न इस बार गाँव हो आए। माँ और बाबूजी को देखे भी तो दो साल गुजर गये। माँ के हर ख़त में बाबूजी की बीमारी का ज़िक्र रहता है। क्यों न देख आए। विचार के साथ ही कल्पना के क़िले जैसे बनते चले गये। कितने खुश होंगे वे दोनों। उसे भी तो बेहद अच्छा लगेगा। उफ़, यह परिवर्तन ! बिना किसी ज़िम्मेदारी के माँ के हाथ का खाना खाकर बग़ीचे में रात दिन चक्कर लगाना। कितने सुहावने दिन होंगे !
फिर वही पीपल का पेड़, वे ही पक्षी, फूल और तितलियाँ...मानो स्वर्ग ही उतर आया हो।
याद ही कितनी मीठी है। सोचते ही जैसे उस पर नशा छाने लगा। आज रात वह ज़रूर पति से बात करेगी। घर की याद जो एक बार आयी फिर वह उसे रोक नहीं सकी। सूर्या को पढ़ाते, खाना पकाते, ठाकुर के सामने सँझाबाती जलाते, यादें लगातार पीछा करती रहीं। ‘‘नाना-नानी को देखने चलेगा, सूर्या ?’’
‘‘हाँ, चलेंगे। कब ?’’
‘‘परीक्षाओं के बाद जब तुम्हारी छुट्टियाँ पड़ेंगी !’’
‘‘हाँ, ज़रूर चलेंगे।’’
उसके उत्तर ने जैसे उसे आश्वस्त कर दिया।
रात सारे कामों को निपटाकर सूर्या के सो जाने के बाद वह पति की प्रतीक्षा करने लगी। किस तरह मना सकेगी वह रामकृष्णन को ? भीतर ही भीतर भूमिका तैयार करने लगी। रामकृष्णन देर रात तक हिसाब किताब देखता रहा। उसका धैर्य चुकने लगा। ओह, आज किसी तरह मनाना है। वह मन ही मन भगवान् से मिन्नतें करने लगी।
आख़िरकार एक लम्बी जम्हाई लेता हुआ वह आकर लेट गया। उसने उसके गले में बाँहें डाल दीं। उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखा और उसकी ओर करवट लेकर उसे अपने पास खींच लिया।
‘‘क्यों, सोयी नहीं अब तक ?’’ उसका स्वर मुलायम था।
उसे जैसे बल मिल गया। ‘‘कुछ सोच रही थी। इसलिए नींद नहीं आयी।’’
‘‘वाह, तो तुम भी इतना सोचने लगी हो कि नींद तक हराम होने लगी, क्यों ?’’
उसकी व्यंग्य भरी हँसी उसे आहत कर गयी। उसे तिलमिलाना नहीं है। तिलमिलाएगी तो उसका काम नहीं बन पाएगा।
‘‘तो क्या सोच रही थीं ?’’ उसने उसे और कसते हुए पूछा। भय से उसका हृदय तेजी से धड़कने लगा। अगर कहीं मना कर दे तो ?
‘‘कुछ नहीं ! मामूली-सी बात है। सूर्या के इम्तिहान हैं फिर छुट्टियाँ हो जाएँगी। सोच रही थी इस बार घर हो आऊँ।’’
उसके हाथ जैसे सख़्त हो गये। वह जानती थी कि उसके लिए यह कोई मामूली बात नहीं थी। यह तो महज एक दीवार है जो वह दोनों के बीच खड़ा कर देना चाहता है । इस दीवार को लाँगकर उस तक पहुँचना सम्भव हो सकेगा क्या ?
उसके लिए तो जोड़-बाकी या लाभ-हानि जैसे बातें ही सोचने लायक हैं। मन या आत्मा की बातें तो निहायत ओछी हैं।
‘‘अब अचानक इस यात्रा की क्या आवश्यकता पड़ गयी ?’’
उसका मन बैठने लगा। उसे झुँझलाहट-सी हुई कि पिछले दो सालों से वह कोई न कोई बहाना बनाकर यूँ ही टालता आ रहा है। डर लगा कहीं हमेशा की तरह इस बार भी कोई बहाना न बना दें। दोपहर भर जो सपने बुनती रही कहीं वे तार-तार न हो जाएँ।
‘‘माँ-बाबू जी को देखने की इच्छा हो रही है। दो साल हो गये । माँ तो हर ख़त में लिखती हैं कि बाबूजी की हालत ठीक नहीं। ’’
वह कुछ देर चुप रहा।
‘‘हालत इतनी ख़राब तो नहीं कि आप को जाने की ज़रूरत पड़े।’’
‘कितना क्रूर है वह।’ उसके आँसू निकल आये। और वह बेआवाज़ सिसकने लगी। राकृष्णन ने खीझकर उसका हाथ परे हटा दिया।
‘‘अब, इतनी-सी बात पर रोना-धोना मच गया।’’
वह चुपचाप आँसू बहाती रही।
‘बात उसके लिए इतनी-सी होगी। पर मेरे लिए तो बड़ी है। यहाँ जो सुख नहीं मिल सकता। वहाँ मिल सकेगा। यह क्या छोटी बात हुई ? मेरी जड़े तो अब भी वहीं हैं। मैं एकदम उखड़कर नहीं अलग हो सकती। आपने मुझे इन्सान समझा ही कब ? मैं तो ख़रीदी हुई वस्तु हूँ आपकी सम्पत्ति, जिसकी न कोई इच्छा है न आकांक्षा।’
सोच-सोचकर उसे और रोना आ गया।
‘‘बस पन्द्रह दिन की ही तो बात है। मैं सूर्या को लेकर हो आती हूँ। यहाँ महराजिन है ही। ऊपर की देखरेख अम्मा जी कर लेगीं। मेरे न रहने की कोई तकलीफ़ नहीं होगी। प्लीज़ मैं हो आऊँ ?’’
अपनी जायज माँग के लिए भी उसे इस तरह गिड़गिड़ाना पड़ रहा है। स्थिति की दयनीयता ने उसे और खिझा दिया।
‘‘सूर्या को वहाँ तकलीफ़ होगी।’’
उसने इस अपमान को बमुश्किल निगला। ‘‘कैसी तकलीफ़ ?’’
‘‘वहाँ पलँग और गद्दे तो हैं नहीं। यहाँ जैसा खाना उसे मिलता है वहाँ, क्या खाक़ मिलेगा।’’
‘‘मैं भी तो वहीं पली हूँ। क्या मैं स्वस्थ नहीं।’’ वह खीझकर पलट गयी। उसे लगा इसके साथ तर्क करने से कोई हल नहीं निकलेगा।
इस तरह के पति के रहते कैसे उसने इतनी ऊँची कल्पनाएँ कर डालीं। उसे अपने ऊपर आश्चर्य हुआ।
रामकृष्णन के हाथ उसकी कमर के इर्द-गिर्द कस गये। ‘‘इधर तो देखो।’’ वह झट पलट गयी। ‘‘ठीक है, हो आओ।’’
उसे आश्चर्य हुआ। यह क्या उसी के वाक्य हैं ? उसे जैसे विश्वास नहीं हुआ। उसने उसकी छाती में मुँह छिपा लिया। ‘‘थैंक यू।’’
‘सिर्फ़ पन्द्रह दिन, इससे ज़्यादा नहीं।’’
‘‘ठीक है।’’
उसके सामीप्य में एक विजेता का-सा भाव था। उसके दर्प को महसूस करते हुए उसके होठों पर हलकी-सी मुस्कान तिर गयी।
जाने कितने अंहकार पाल रखे हैं लोगों ने। धनी और पुरूष होने का अंहकार। यह अहंकार ही तो आत्मा की दृष्टि पर परदा डाल देता है। हे ईश्वर, तुम ही रक्षा करना। दूसरों की भावनाओं की कद्र न करने की इनकी आदत तुम ही बदल सकते हो।
सुबह आँख खुलते ही सहसा याद आया। वह घर जा रही है। मन जैसे उड़ान भरने लगा। माँ को आज ही लिख देगी कि वे दोनों आ रहे हैं। माँ तो खुशी से झूम उठेगी। तरह-तरह के पकवान बनाना शुरू कर देगी। उसके हाथ के पकवानों का स्वाद भी तो निराला होता है। उनके प्रेम की तो जैसे कोई बराबरी नहीं हो सकती । उस प्रेम की याद आते ही उसकी आँखें पनियाने लगीं है।
उस दिन सुबह से ही उसकी साँस उखड़ी-उखड़ी रही। वह समझ गयी कि रामकृष्णन ने माँ को बता दिया होगा। बहू को मायके भेजते यह लोग इतना क्यों सोचने लगते हैं। इन्हें आपत्ति भी किस बात की हो सकती है ? महरी को छुट्टी देना हुआ तो भी वे कंजूसी बरतती हैं। कुछ वैसी ही उदासीनता उसे घर भेजते भी होती है। यह भी एक तरह की गुलामी है।
‘‘सुना है, कि माँ के घर जा रही हो ?’’
क्या जवाब दे वह तय नहीं कर पायी।
‘‘मैंने सोचा नहीं, आपके बेटे से पूछा था।’’
‘‘बिस्तर पर इस तरह के सवाल करोगी तो वह न थोड़े न करेगा।’’ उसका चेहरा लाल हो गया। इनमें तो बात करने की तमीज़ भी नहीं है। कैसे कह लेते हैं अपने को बड़ा आदमी ? उसे क्रोध आया।
चुपचाप मुँह लटकाकर अपने काम में लगी रही।
‘‘ठीक है, मुझे क्या ? वहाँ डेरा मत डाल लेना।’’
‘‘बस पन्द्रह दिनों की ही तो बात है। सूर्या के स्कूल भी तो खुल जाएँगे।’’
‘‘उससे ज़्यादा वहाँ धरा भी क्या है ?’’ उसने होंठ काट लिये।
इस तरह की बातें सुनने की वह आदी हो गई है। शालीनता और प्यार भरा व्यवहार कैसा होता है। वह खुद भूल गयी है। इस बार घर जाना तो किसी तीर्थ यात्रा की तरह होगा। जड़ होते मन की चेतना जैसे जगानी है।
अगले एक सप्ताह में रामकृष्णन और उसकी माँ सामान्य हो गये थे। बार-बार उसे यूँ ही समझाते रहे मानो वह किसी घोर अरण्य में सूर्या को लिये जा रही है।
घर ख़त दिया था। तार भी सुरक्षा के लिये दे दिया था। सामान समेत स्टेशन जाते हुए उसकी और सूर्या की मन:स्थिति लगभग एक ही थी। हर बात पर आश्चर्य। जैसे उम्र के पन्द्रह वर्ष कहीं माइनस हो गये हैं।
बाबू स्टेशन आये थे। उनके सफ़ेद बाल और धोती देखकर भीतर का प्रवाह उमड़ आया। कितने दुबले हो गये हैं वे ! मन अवसाद से भर आया है।’’
‘‘आओ बिटिया ! अरे मुन्नू। ख़ूब लम्बा निकल आया है।’’
‘‘हाँ। दो साल हो गये हैं न। आप कैसे हैं बाबूजी ?’’
‘‘बस ठीक ही हूँ बिटिया। थोड़ा-सा हाई ब्लड प्रेशर है। कभी-कभार तंग करता है, बस।’’
‘‘और माँ ?’’
‘‘भगवान की दया से सब ठीक-ठाक है। ’’
बाबूजी टैक्सी ढ़ूँढ़ने लगे।
‘‘टैक्सी नहीं चाहिए। ताँगे में ही चलते हैं।’’
‘‘क्यों बिटिया, तुम्हें तकलीफ़ तो नहीं होगी ?’’
‘‘न, मुझे तो अच्छा लगेगा।’’
‘‘और सूर्या ?’’
‘‘मुझे भी अच्छा लगेगा।’’
ताँगे में जाने की कल्पना मात्र से उसका मन उछल गया। ताँगे में हिचकोले लेकर जाते हुए दोनों ओर रास्ते में सिर निकाले खड़े नीम और बकायन के पेड़ और साथ ही कल-कल करता नाला ! मन की सारी खिन्नता दूर हो गयी और मन उत्साह से भर आया।
माँ बाहर ही खड़ी थीं। अपनी चिर-परिचित हँसी के साथ।
‘‘आओ मालती ! आ जा मुन्नू !’’
इससे पहले कि सूर्या उतरता, माँ ने लपककर उसे पकड़ लिया।
मालती ने भीतर आकर दोनों को प्रणाम किया। माँ ने आँखों में आँसू भरकर उसे पास खींच लिया। मन में लाख सन्ताप हो पर वे लोग एक सवाल नहीं करेंगे। यही तो सज्ज्नता है इनकी !
‘‘तुम्हारे पति और सास तो ठीक हैं न ?’’
‘‘हाँ, ठीक ही हैं।’’
अगर वह कह दे उसे उनकी याद तक नहीं आती तो कितना चौंक जाएँगे ये लोग।
‘‘तुम्हारे लिये चने की मँगौड़ी का साँबर बना रखा है।’’
‘‘ओह माँ !’’
हाथ-मुँह धोकर कॉफ़ी पीने के बाद सूर्या का हाथ खींचकर बग़ीचे की ओर भग गयी। उसी कल्पना में फैला वह पीपल, पक्षी, ढेरों फूल, तितलियाँ हू-ब-हू वैसे ही थे यथार्थ की तरह। उनमें से एक की कमी खलने लगती। सूर्या तितलियों के पीछे भाग रहा था।
‘‘देखा न सूर्या, यह गाँव कितना सुन्दर है !’’
‘‘हाँ माँ, बहुत अच्छा लग रहा है।’’ उसका चेहरा और खिल गया।
‘‘पन्द्रह दिन से अधिक वहाँ रखा ही क्या है ?’’ उस वाक्य को याद कर हँसी आ गयी। पीपल के पक्षी पाइप से निकलती धार में अठखेलियाँ कर रहे थे। फिर जैसे वाक्य याद आ गये। केवल कौओं और गौरेयों की पहचान रखनेवाले यही तो कह सकते हैं।
‘‘मालती चलो, नहा-धोकर खाना खा लो। ठण्डा हो जाएगा।’’
‘‘अभी आयी।’’
सूर्या को लगभग अपने साथ घसीटती हुई भीतर आयी। समय को जैसे पंख लग गये। सारा दिन दुनिया भर की बातें होतीं। बग़ीचे की सैर की जाती और शाम होते ही वे मन्दिर हो आते। दिन इतने सुहावने कब से होने लगे ! एक सप्ताह बाद वापस लौटने की कल्पना से ही कहाँ भीतर कुछ दरक गया। पन्द्रह दिनों का अवकाश उन्हीं लोगों की अनुकम्पा है। यह बात बार-बार कचोटने लगी।
उस दिन सूर्या कुछ सुस्त था। तितलियों के पीछे भागने की शक्ति जैसे चुक गयी थी। बग़ीचे के कोने में दुबककर बैठ गया।
‘‘बैठ क्यों गये ?’’
‘‘आज तो बैठकर ही देखने का मन हो रहा है। बैठकर देखने में तो ये चीजें और भी सुन्दर लगती हैं।’’
वह हँसती हुई उसके पास बैठ गयी।
‘‘माँ, मुझे यह गाँव अच्छा लगता है।’’
‘‘और मुझे भी।’’
‘‘हम यहाँ रह जाएँ तो।’’
कैसे बेटा, तुम्हें तो अच्छे स्कूल में पढ़ना है। पापा जहाँ हैं वही तो रहना होगा न हमें।’’
वह जैसे किसी सोच में पड़ गया। देखता ही रहा। फिर धीरे से बोला, ‘‘यहीं रहेंगे।’’
उसे आश्चर्य हुआ। इस बच्चे की आँखों में पता नहीं क्या-क्या बैठ गया है ! इसके फूल से कोमल मन में किसी विचार का बीज तो नहीं पड़ गया ! उसकी उदासी और इच्छाओं को समझने तो नहीं लगा।
‘‘माँ, सिर भारी हो रहा है।’’ झट उसकी चेतना लौट आयी।
‘‘क्यों बेटे ?’’
उसने माथे पर हाथ रखा। हल्का-सा बुखार था।
‘‘भीतर चलो। यहाँ धूप में नहीं बैठेंगे। दवाई देती हूँ। थोड़ी देर सो लो। ठीक हो जाएगा। पेट भी तो ख़ाली है।’’ उसने रसम चावल खिलाये। सूर्या ने तुरन्त उलट दिया। उसे चिन्ता हुई। सिरदर्द की गोली देकर सुला दिया। माँ ने छूकर देखा, ‘‘हल्का बुख़ार है। मैं काढ़ा बना देती हूँ, बस ठीक हो जाएगा।’’
थर्मामीटर लगाया तो 100 डिग्री बुख़ार निकला। काढ़ा पिलाने के बाद वह लाख मनौतियाँ करती रही थी। सुबह तक बुख़ार नहीं उतरा तो अस्पताल ले जाएगी। खाना-पीना भूलकर उसके पास बैठी रही।
माँ ने थोड़ा झिड़क दिया, ‘‘बच्चा है, सर्दी-ज़ुकाम तो लगा ही रहेगा। इतने में ही घबरा जाती हो !’’
मन वाकई घबरा गया था। एक अनजाना भय जैसे भीतर बैठने लगा।
रात दस बजे के लगभग सूर्या का शरीर ऐंठने लगा। वह घबरा गयी। तुरन्त अस्पताल जाना चहती थी। बाबूजी जाने कहाँ से झट टैक्सी ले आये। बच्चे की आँखें बन्द थी। उसका मन रो उठा। ‘‘न भगवान्, इतनी सजा मत देना।’’
अस्पताल में डॉक्टर ने जाँच की। एक सुई लगा दी। अगले आधे घण्टे में सूर्या नहीं रहा। उसकी सारी चेतना जैसे सुन्न हो गयी । वह बेहोश हो गयी थी।
बैठक में लाश को घेरकर सभी रो रहे थे। पर उसे जैसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था।
‘‘यहीं रह जाएँगे।’’
कैसा वाक्य निकला था बच्चे के मुँह से ? क्या उसे मालूम था कि उसकी मौत इसी माटी में बदी है। अपनी इच्छानुसार जैसे मौत की जगह चुन ली थी। जो भी उसकी इच्छाएँ थीं, मानों इन दस दिनों में पूरी तरह भोग चुका था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। यहीं कहीं होगा। इसी माटी में, इसी बयार में, इन्ही धीमे-धीमे हिलती पंखुड़ियों के बीच !
‘‘इससे अधिक वहाँ रखा ही क्या है ?’’
वह चौंक गयी ! उसे तो शोक मनाने की भी स्वतन्त्रता नहीं रह गयी। इस मौत के लिए उसे जाने कितनों को जवाब देना होगा।
‘‘वहाँ सूर्या की देखभाल नहीं हो पाएगी। उसे पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाएगा।’’ रामकृष्णन की बातें याद आयीं और उसका दिल बैठने लगा। क्या कहेगी वह ! क्या जवाब देगी अगर पूछेंगे कि, ‘‘मैंने तो तभी कहा था। तुम्हें बच्चे की चिन्ता कहाँ थी । मायके का दुलार ही ज़्यादा लग रहा था।’’ क्या कहेगी वह ?
पर बच्चा तो यहाँ खुश था। क्या कमी थी। अच्छा खाता रहा। ख़ूब खेलता रहा मद्रास से ज़्यादा खुश यहाँ था। पर क्या वे लोग विश्वास करेंगे। यह भी कैसा बुख़ार था। 100 डिग्री का बुख़ार क्या आदमी को निगल सकता है ? किये पता था। उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे। हे भगवान्, ऐसा तूने क्यों किया ? मायके जाने की इच्छा इतनी अन्याय पूर्ण तो नहीं थी। पति और सास की अनिच्छा के बावजूद अपनी इच्छा पूरी करने की ज़िद ग़लत ही होगी। पर इतना बड़ा दण्ड है ! हे भगवान्, तुम निष्ठुर हो, अन्यायी हो।
बाहर गाड़ी के रूकने की आवाज। अपनी एम्बेसेडर की आवाज़ से वह खूब परिचित थी। उसकी घबराहट बढ़ गयी। जैसे उसने कोई हत्या कर दी हो। क्या जवाब देगी इन्हें ! पैरों की आहट....उसकी छाती पर हथौड़ों-सी पड़ रही थी।
रामकृष्णअन के चेहरे पर सदमे और शोक का भाव था। उसकी सास के चेहरे पर क्रोध झलक रहा था। दोनों को देखकर वह अपने को सँभाल नहीं पायी। फूट-फूटकर रोने लगी। रामकृष्णन लाश के पास नहीं गया। सीधा ससुर के सामने खड़ा हो गया।
‘‘मैं पूछता हूँ, क्या मतलब हुआ इसका ? दस दिन पहले मेरा बेटा भला-चंगा था। फिर यह सब कैसे हुआ ?’’
बाबूजी की आँखें लगातार बह रही थीं।
‘‘कल तो ठीक था, जमाई बाबू। कल शाम भी खेल रहा था।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘अरे रामकृष्णन, तेरी बीवी को तो बाग़ बगीचे का भूत सवार है। भूत की तरह रात दिन बग़ीचे में उछल रही होगी। बच्चा साथ ही था। किसी ज़हरीले कीड़े ने काट खाया होगा।’’
‘‘ऐसी बात नहीं समधिन जी। शाम हल्का बुख़ार था। डॉक्टर के पास चलने से पहले शरीर ऐंठने लगा। तुरन्त अस्पताल पहुँचकर घण्टे भर में प्राण निकल गये।’’
‘‘मैंने तो पहले ही कहा था, बच्चे की देखभाल नहीं हो पाएगी। पर कहाँ मानती तुम्हारी बीवी !’’
‘‘देर से ले गये होंगे। पता नहीं कैसा खैराती अस्पताल रहा होगा।’’
‘‘उन्हें क्या, चीज़ तो हमारी गयी।’’ सास ने ताना मारा।
उसका सिर और झुक गया। चीज़...! उसके घर की है। यह सोचकर अपमानित महसूस करने लगी। इन्सान हैं ये लोग। चार पैसे क्या हाथ में आ गये तुमने इन्हें सुनाने का मौक़ा दे डाला। तुम निष्ठुर हो भगवान्, बेवजह मेरे बेटे को मार डाला और इनके सामने मुझे अपराधिनी बना दिया !
वे अपनी बातें दोहराते रहे। जैसे साबित करना चाहते हों कि बेटे कि हत्या इन लोगों ने मिलकर की है। उसे खीझ हो आयी। सिर भारी होने लगा है। डर लगा, कहीं इनकी बातें सुनते-सुनते उसका मन भी बदल जाए। कहीं वह भी इनकी भाषा में बात करने लगे तो ? मन इतना कड़वा हो जाए कि उसकी दृष्टि भी बदल जाए और उसका सारा स्नेह भाव बदल गया तो ?
बच्चे का क्रिया कर्म निपट गये। उसे लगा जैसे उसने सूर्या को दान कर डाला है इसी माटी को, बयार और तितलियों को। घर लौटने के बाद एक-एक पल भारी पड़ने लगा। हर बात पर सूर्या की याद। सूर्या को यह पसन्द है। यह नापसन्द है। सूर्या को स्कूल की देर हो गयी। सूर्या के आने का वक़्त हो गया। हर समय वही सूर्या। सूर्या.....
‘‘हे भगवान्, उसे लौटा दो। वरना मैं तुम्हें छोड़ने वाली नहीं। तूने छल किया है मेरे साथ। मैं नहीं छोड़ूँगी। ये आँसू नहीं फूल हैं। इनकी माला पिरो रही हूँ। यह मेरा प्रलाप तुम्हारे लिये पढ़े गये श्लोक हैं। बस उसे वापस लौटा दो।’’ फिर छाती फटने लगती। मन के चारों ओर धुन्ध-सा कुछ छाने लगता। आँखों के सामने अँधेरा छा जाता।
‘‘बच्चा जन तो लिया, पर देखभाल नहीं हो पायी।’’ सास के ताने।
हे भगवान्, मुझे शक्ति दो। मैं आपकी शालीनता नहीं खोऊँ। सोच-सोच कर सिर फटने लगता ।
‘‘छाती फटी जा रही है । कैसा सोनचिरैया था ! कितनी लापरवाही बरती होगी। जो यूँ चला गया; हमारे पास होता तो ऐसा क्यों होता है !’’ सास कलपती।
तो क्या तुम लोग रोक लेते। कितना विश्वास है अपने बल पर। क्या रूपया इतना बल देता है ?’
रामकृष्णन क़रीब-क़रीब रोज़ ही चिल्लाता, तुम्हारी लापवाही ने ही बच्चे की जान ली।’’
सुनते-सुनते उसे भी लगने लगा कि बात सच है। अकेले में उसके सीने से चिपक कर आँसू बहाती ।
‘‘क्या सूर्या मेरा बेटा नहीं था। उसके जाने का दुःख मुझे नहीं है क्या ?’’
‘‘दुख से क्या होगा। ज़िम्मेदारी तो होनी चाहिए थी न !’’
मन में अपराध भावना इतनी बैठ गयी थी कि उसे उसकी बात सच लगने लगती। और ऐसे में और रोने लगती है। कभी-कभी तो रामकृष्णन भी पिघल जाता और उसे सहलाकर चुप कराता। उसे लगा कि इस तरह पिघलना भी स्पर्श के आकर्षण से जुड़ा है।
एक दिन सोते में लगा जैसे सूर्या बुला रहा है।
‘‘माँ, माँ...’’
‘‘क्या है बेटे !’’
‘‘तेरे पास आ जाऊँ ?’’
‘‘हाँ बेटे, आ जा।’’ जैसे ही उठकर हाथ फैलाने लगी, आँख खुल गयी।
शरीर में जैसे झुरझुरी फैल गयी। मन में कोई प्रवाह उमड़ पड़ा। बत्ती जलाकर सूर्या को खोजने लगी, जैसे वह कहीं छिप गया हो।
रामकृष्णन जग गया। भौंह सिकोड़ता बोला, ‘‘आधी रात में बत्ती जलाकर क्या कर रही हो ?’’
उसकी सचेतना लौट आयी। निःश्वास के साथ बत्ती बुझाकर लेट गयी। पर नींद कहाँ आती। मन जैसे भरा-भरा लग रहा था। लगा, सूर्या वाली बात सच है। मन बार-बार दोहरा रहा था।
हे भगवान् सूर्या को वापस कर दो।
अगले दिन रामकृष्णन को रात के सपने की बात सुनायी।
‘‘पागल हो रही है तू।’’
‘‘न, मुझे सच लग रहा है । सूर्या हमारे पास ज़रूर आएगा।
‘‘क्यों, फिर उसे मारने का इरादा है क्या ?’’
वह सहम गयी और आँखे भर आयीं। कैसे सम्भव हो पाता है इतना जहर उगलना। ये लोग तो मुझे सुना-सुनाकर मार ही डालेंगे। इतना अरोप की मैं पागल हो जाऊँगी किसी दिन !
‘‘फिर मारने का इरादा है क्या ?’’
उसका सिर फटने लगा। सारी यादें सारे आक्रोस जैसे फूटने को हो गया।
‘‘फिर मारने...’’
उसने सिर थाम लिया। कोई काम नहीं कर पायी।
सास ने वक़्त पर खाना खाया और आराम करने चली गयी। वह भ्रमित-सी बरामदे में ही बैठी रही। मनीप्लाण्ट की लम्बी बेलें सर्प-सी लगने लगी। मन में जैसे विचार कौंध गया। इसी घर में रहेगी तो सूर्या नहीं लौटेगा। वह झट उठी। भीतर का उफनता आक्रोश नहीं रूका, मनीप्लाण्ट को नोंच कर फेंकने लगी। बेडरूम में जाकर, एक सूटकेस में कुछ रूपये रख लिये। रेल के किराये भर का ख़र्च लेकर निकल पड़ी।
उसे यूँ अचानक सामने देखकर माँ और बाबूजी घबरा गये।
‘‘आओ बेटी, एक ख़त तो डाल देती, स्टेशन ही आ जाते।’’
वह बेहद थक गयी थी। उसे लगा उससे अब कोई सवाल नहीं करे।
‘‘लिखने का समय ही कहाँ रहा बाबूजी ?’’
‘‘इतनी भी क्या जल्दी थी ?’’
उसने उन्हें एक बारगी देखा। ‘‘सूर्या यहीं है बाबूजी। मुझे बेटे को देखने की जल्दी थी।’’ माँ और बाबूजी ने एक दूसरे की आँखों में कुछ परच लिया। आँखों के आँसू उसमें छिपा लिये। बाबूजी के पास आकर उसका कन्धा छू लिया।
‘‘हाँ बेटी। ठीक कह रही है तू। पहले हाथ मुँह धोकर कॉफ़ी पी लो।’’
‘‘मैं आइन्दा यहीं रहूँगी बाबूजी। सूर्या भी यहीं रहना चाहता है।’’
‘‘ठीक है। पहले कॉफ़ी पीकर सुस्ता लो।’’
कुएँ से पानी लेकर मुँह धोकर आ गयी।
कॉफ़ी देती हुई माँ की आँखों में आँसू थे। कॉफ़ी पीते ही जैसे आराम मिला। सहसा आँखों के आगे अँधेरा छा गया। पेट में कुलबुलाहट मचने लगी। कुएँ के पास पहुँचकर सारी कॉफ़ी उलट दी। माँ घबराती हुई आयी।
‘‘क्या हो गया री !’’
उसने कुल्ला किया और दोनों हाथों से पानी के छींटे मारने लगी। सहसा दिमाग़ में कुछ कौध गया। मन ही मन सवाल लगाया और सच खुलते ही वह पुलकित हो गयी। उसने प्यार से माँ को देखा और मुस्करा दी।
‘‘कुछ नहीं माँ, ठीक हूँ। देख लेना। अब से खुश रहूँगी।’’
‘‘चलो, भीतर चलकर लेट जाओ।’’
‘‘रूको, माँ। ज़रा बग़ीचे में टहल तो लूँ। मुझे कुछ भी नहीं हुआ। घबराओ मत।’’
माँ के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ मिटीं नहीं। वह पीपल के पेड़ के पास गयी। ये पेड़, पक्षी और फूल किसी दैवी प्रतिरूप से लगे और उसका मन भर आया। आँखों में आँसू गये।
-भगवान् तुम अपार करूणा के स्वामी हो। इसी पीपल के नीचे तो सूर्या ने उसे रोज़ कहा था, ‘‘यहीं रह जाएँगे।’’ उसके चेहरे पर हँसी तिर
‘‘हाय, कितनी घनी बेल है यह !’’
‘‘यानी पैसे की कोई कमी नहीं, क्यों ?’’
वह हँसती, ‘‘क्यों, आपको ये पत्तियाँ नोट नज़र आती हैं ?’’ वह पूछती।
‘‘नोट हों या नहीं, कहते है जब यह बेल घनी होने लगे तो समझो घर में सम्पन्नता आ गयी ।’’
‘‘सम्पन्नता का मतलब धन से होता है क्या ?’’
वह हँसी-हँसी में बात छोड़कर पूरी दृढ़ता के साथ सर हिलाती, ‘‘न, मुझे तो क़तई नहीं लगता है कि धनी लोग के घर सम्पन्नता होती है ।’’
‘‘धन का होना ही तो सम्पन्नता है। ’’
‘‘नहीं।’’ फिर जैसे वह अपने आप में कहती हैः ‘‘मेरी माँ का घर धनी नहीं, पर मुझे लगता है वहाँ पूरी तरह सम्पन्नता है। पर मेरी ससुराल ! वहाँ अपार धन है फिर भी जाने मुझे क्यों लगता है। वहाँ सम्पन्नता है ही नहीं।’’
‘‘तुम एकदम ऊटपटाँग सोचती हो। तुम्हारी दृष्टि एकदम अलग जो है।’’ जब भी वह इस बेल को देखती है। उसे यह वार्तालाप याद आ जाता है और उसके होठों पर हँसी थिरकने लगती ।
‘‘दृष्टि तो आप लोगों की विचित्र है।’’ वह खुद से कहती।
‘‘हर चीज़ को रूपयों में तौलने वाली दृष्टि। मात्र सोने और हीरे को ही तौलनेवाली दृष्टि। जो हीरे का कर्ण फूल नहीं पहनता, उसकी सास सीधे मुँह उससे बात नहीं करती । आप जो मनुष्य को मनुष्य की तरह नहीं देखते, आप लोग ही विचित्र हैं।’’ वह मन ही मन बुदबुदाती।
‘‘मैं अपने बच्चों को आपकी दृष्टि नहीं दूँगी। मैं क़तई नहीं चाहती कि किसी चीज़ को देखकर उनको रूपये की याद आये। तौलकर सौदेबाज़ी करनेवाली बुद्धि, हरी बेल को देखकर उसे भी रूपये से जोड़नेवाली दृष्टि मैं नहीं चाहती ।’’
उसे अपना गाँव, घर, पूरी चहारदीवारी को अपनी घनी छाँह से ढकनेवाला पीपल, झूला सहसा याद आ गये। पीपल पर रहने वाले उन रंग-बिरंगे अनाम पक्षियों की याद आ गयी। बग़ीचे के कोने में एक नल लगा था। बाबू जी काम पर जाने के पहले उसमें ट्यूब लगा देते और क्यारियों में छोड़ जाते, पानी से कई धाराएँ निकलतीं और पानी पीने के लिए पीपल से ढेरों पक्षी उतर आते। कितने पक्षी, वह कइयों के नाम तक नहीं जानती। गहरे लाल, हल्के पीले और मोरपंखी ! उनके कलरव से बाग़ गूँजता और वे पानी में अठखेलियाँ करते रहते। सारा का सारा दिन उन्हें देखते गुज़ार देने की इच्छा होती।
बाबू जी तरह-तरह के फूल वाले पौधे लगाते। तितलियाँ उनकी खोज में आतीं। उनका पीछा करते हुए भागना सुखद लगता था। उसे लगता कि इस तरह के माहौल को जिसने भी नहीं भोगा वे ही इस मनीप्लाण्ट के दीवाने होते हैं। और ऊपर से इस बेल और रूपये के बीच गाँठ लगाकर खुश हो लेते हैं। रूचि से भी कैसी सौदेबाज़ी है यह ?
उसी गमले में एक लोटा पानी देकर वह अपने रोज़मर्रा के कामों में लग गयी। सास जी खाना खाकर सुस्ता रही थीं। उसे सूर्या को बस स्टाप से लाना है। उसने चौक का किवाड़ भिड़ा दिया। शीशे के सामने बिन्दी ठीक की और चप्पल पहनकर निकल गयी। बाहर का किवाड़ धीमे से बन्द किया और सीढ़ियाँ उतरने लगी।
अभी गली के नुक्कड़ पर भी नहीं पहुँची थी कि सूर्या की बस आ गयी। वह तेज़ क़दमों से चलने लगी। सूर्या आराम से उतर गया और उसे देखकर धीमे से हँस दिया। उसका सुन्दर चेहरा सूख गया था। उसे जैसे सहसा कुछ याद आ गया, ‘‘माँ आज तूने टिफ़िन के लिए तीन पराँठे क्यों रखे दिये ? मैंने तो दो के लिए कहा था’’
‘‘मैंने समझया दो तो काफ़ी नहीं है।’’
‘‘मुझसे तो तीसरा खाया ही नहीं गया, माँ।’’
‘‘चलो कोई बात नहीं ।’’
‘‘तुम्हीं तो कहती हो कि कभी कोई चीज़ बेकार नहीं करनी चाहिए।’’
उसने हँसते हुए उसकी कमर पकड़कर अपने से सटा लिया।
‘‘ठीक है, तो ये बेकार नहीं जाएँगे। महरी को दे दूँगी, बस !’’
उसे जैसे तसल्ली मिल गयी और चुपचाप चलने लगा।
‘‘माँ, हमारे स्कूल में एक पेड़ है। उसमें आज अचानक फूल खिल आए हैं। जानती हो माँ कितने सुन्दर हैं वो?’’
‘‘कौन-सा फूल है ?’’
‘‘नाम तो नहीं पता माँ। सफ़ेद और लाल है ! सच माँ इतने सुन्दर हैं, तुम्हें नहीं बता सकता।’’
उसने मुस्कराते हुए उसे देखा।
‘‘तो मेरे लिए एक फूल तोड़कर ला दोगे ?’’
‘‘यही तो बड़ी मुश्किल है माँ।’’ उसका चेहरा गम्भीर हो गया। ‘‘पेड़ पर जो खिले हैं। मेरे हाथ थोड़े न पहुँचेंगे वहाँ तक ?’’
‘‘ठीक है। रहने दो’’
‘‘माँ, भगवान् उन सुन्दर चीज़ों को इतनी ही ऊँचाई पर रखता हैं न !’’ उसने उसे आश्चर्य से देखा। ‘‘नहीं तो !’’
‘‘हाँ,’’ उसने दृढ़ता से कहा।
‘‘चन्दा को देखो। तारे, आकाश सबको देखो न माँ। क्या हम इन्हें छूँ सकते हैं ? नन्ही-सी गौरैया हो या तितली, छूने से पहले कैसे फुर्र से उड़ जाती हैं ?’’
हल्की खुशी भी हुई। वह भी उसी की तरह प्रकृति को परख सकता है, उसे प्यार कर सकता है। उसकी यह दिलचस्पी कुछ दिन और बनी रहेगी। जब तक बाप, दादी और बुआ की जोड़-बाकी वाली व्यावहारिकता इसे छू नहीं जाती। फिर इसकी प्रकृति भी वैसी ही होने लगेगी। इसकी दृष्टि तक पेड़, फूलों और आकाश को नहीं पहचान सकेगी।
मन व्याकुल हो गया। क्या कोई ऐसा रास्ता नहीं निकल सकता कि उसका मन इन छोटी बातों से ऊपर ही उठा रहे। माँ और बाबू जी की याद आ गयी। साथ ही उनकी याद से जुड़ा वह पीपल का पेड़, फूल और पक्षी याद आ गये। माँ की इच्छा थी कि बेटी के लिए तरह-तरह के गहने बनवाये जाएँ और उन्हें पहनाकर देख ले। बाबू जी वर्धा में रह चुके थे। अक्सर कहते, ‘‘अरी, भगवान् ने जो सुन्दरता दी है वह काफ़ी नहीं क्या ? उसे किसी गहने-वहने की ज़रूरत नहीं। समझी !’’
‘‘तो क्या उम्र भर वह तुम्हारे पास रहेगी ? सयानी हो गयी है। एकाध गहने भी नहीं बने तो करोगे क्या ?’’ माँ तर्क करतीं।
‘‘कोई तो आएगा जो सिर्फ़ उसके लिए उसे ब्याह कर ले जाएगा। तभी विवाह करूँगा उसका। मीनू, इस तरह की लड़की तो ढूँढ़े नहीं मिलेगी। इतनी पढ़ी-लिखी, सुशील और इतना साफ़ दिल कि प्रेम के अलावा कुछ देना भी नहीं जानती। पता है कितनी सादगी है उसमें !’’
घर आ गया । सूर्या गेट खोलकर भीतर भाग गया । ‘‘बाबूजी, आपको पता भी नहीं कि यहाँ सादगी का मतलब मूर्खता है। रूपये और गहने का मोह न रखनेवाली लड़की यहाँ मूर्ख समझी जाती है। आपको क्या मालूम इन रूढ़ियों के पार मैं कैसे ज़िन्दगी जी रही हूँ।’’
आँखों के आँसू वह भीतर ही पी गयी। अक्सर ऐसा क्यों होता है कि बेवजह आँखें भर आती हैं और भीतर से जैसे कोई बादल घुमड़कर भीतर आना चाहता है। अक्सर उसे आश्चर्य होता है।
अच्छी-भली तो हूँ मैं। इतना आरामदेह घर, बाहर जाने के लिए कार, रूपयों से भरा पर्स और भी कई सुविधाएँ जिनकी कल्पना भी उसने नहीं की होगी। सब कुछ तो है ससुराल में ! जब भी वह गहनों से लदी बाहर जाती तो पड़ोस की सरोज कुढ़ती, ‘‘कितनी भागवान है यह !’’ पर उस बेचारी को क्या पता कि मुझे इन गहनों का कोई मोह नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे खूँटी पर टँगे कोट का खूँटी से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ओह, सरोज नहीं समझ सकेगी यह सब ! यह निर्लिप्तता तो बाबूजी की दी हुई है।
कितना तुच्छ समझते थे बाबू जी पैसे को ! किस तरह बाबू जी ने कमाकर उसका विवाह करवाया होगा ! कभी वह समझ नहीं पायी। उनकी खुशक़िस्मती ही थी कि जैसे वे कहा करते थे ठीक उसी तरह उसकी सुन्दरता पर मुग्ध होकर लड़केवालों ने खुद पहल की थी ! उनकी माँग थी केवल सुन्दर और सुशील लड़की। ढेरों गहनों से उसे लाद दिया गया। और आज उन्हीं गहनों से उसकी आँखों में परदा डाल दिया है। अब न तो उन्हें उसकी सुन्दरता नज़र आती है, न ही उसके गुण।
उस दिन सूर्या की डायरी देखी तो पता लगा। अगले हफ़्ते उसकी परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं। चार दिनों तक चलेंगी। फिर बीस दिनों का शीतकालीन अवकाश। उसके मन में झट एक इच्छा उग आयी। क्यों न इस बार गाँव हो आए। माँ और बाबूजी को देखे भी तो दो साल गुजर गये। माँ के हर ख़त में बाबूजी की बीमारी का ज़िक्र रहता है। क्यों न देख आए। विचार के साथ ही कल्पना के क़िले जैसे बनते चले गये। कितने खुश होंगे वे दोनों। उसे भी तो बेहद अच्छा लगेगा। उफ़, यह परिवर्तन ! बिना किसी ज़िम्मेदारी के माँ के हाथ का खाना खाकर बग़ीचे में रात दिन चक्कर लगाना। कितने सुहावने दिन होंगे !
फिर वही पीपल का पेड़, वे ही पक्षी, फूल और तितलियाँ...मानो स्वर्ग ही उतर आया हो।
याद ही कितनी मीठी है। सोचते ही जैसे उस पर नशा छाने लगा। आज रात वह ज़रूर पति से बात करेगी। घर की याद जो एक बार आयी फिर वह उसे रोक नहीं सकी। सूर्या को पढ़ाते, खाना पकाते, ठाकुर के सामने सँझाबाती जलाते, यादें लगातार पीछा करती रहीं। ‘‘नाना-नानी को देखने चलेगा, सूर्या ?’’
‘‘हाँ, चलेंगे। कब ?’’
‘‘परीक्षाओं के बाद जब तुम्हारी छुट्टियाँ पड़ेंगी !’’
‘‘हाँ, ज़रूर चलेंगे।’’
उसके उत्तर ने जैसे उसे आश्वस्त कर दिया।
रात सारे कामों को निपटाकर सूर्या के सो जाने के बाद वह पति की प्रतीक्षा करने लगी। किस तरह मना सकेगी वह रामकृष्णन को ? भीतर ही भीतर भूमिका तैयार करने लगी। रामकृष्णन देर रात तक हिसाब किताब देखता रहा। उसका धैर्य चुकने लगा। ओह, आज किसी तरह मनाना है। वह मन ही मन भगवान् से मिन्नतें करने लगी।
आख़िरकार एक लम्बी जम्हाई लेता हुआ वह आकर लेट गया। उसने उसके गले में बाँहें डाल दीं। उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखा और उसकी ओर करवट लेकर उसे अपने पास खींच लिया।
‘‘क्यों, सोयी नहीं अब तक ?’’ उसका स्वर मुलायम था।
उसे जैसे बल मिल गया। ‘‘कुछ सोच रही थी। इसलिए नींद नहीं आयी।’’
‘‘वाह, तो तुम भी इतना सोचने लगी हो कि नींद तक हराम होने लगी, क्यों ?’’
उसकी व्यंग्य भरी हँसी उसे आहत कर गयी। उसे तिलमिलाना नहीं है। तिलमिलाएगी तो उसका काम नहीं बन पाएगा।
‘‘तो क्या सोच रही थीं ?’’ उसने उसे और कसते हुए पूछा। भय से उसका हृदय तेजी से धड़कने लगा। अगर कहीं मना कर दे तो ?
‘‘कुछ नहीं ! मामूली-सी बात है। सूर्या के इम्तिहान हैं फिर छुट्टियाँ हो जाएँगी। सोच रही थी इस बार घर हो आऊँ।’’
उसके हाथ जैसे सख़्त हो गये। वह जानती थी कि उसके लिए यह कोई मामूली बात नहीं थी। यह तो महज एक दीवार है जो वह दोनों के बीच खड़ा कर देना चाहता है । इस दीवार को लाँगकर उस तक पहुँचना सम्भव हो सकेगा क्या ?
उसके लिए तो जोड़-बाकी या लाभ-हानि जैसे बातें ही सोचने लायक हैं। मन या आत्मा की बातें तो निहायत ओछी हैं।
‘‘अब अचानक इस यात्रा की क्या आवश्यकता पड़ गयी ?’’
उसका मन बैठने लगा। उसे झुँझलाहट-सी हुई कि पिछले दो सालों से वह कोई न कोई बहाना बनाकर यूँ ही टालता आ रहा है। डर लगा कहीं हमेशा की तरह इस बार भी कोई बहाना न बना दें। दोपहर भर जो सपने बुनती रही कहीं वे तार-तार न हो जाएँ।
‘‘माँ-बाबू जी को देखने की इच्छा हो रही है। दो साल हो गये । माँ तो हर ख़त में लिखती हैं कि बाबूजी की हालत ठीक नहीं। ’’
वह कुछ देर चुप रहा।
‘‘हालत इतनी ख़राब तो नहीं कि आप को जाने की ज़रूरत पड़े।’’
‘कितना क्रूर है वह।’ उसके आँसू निकल आये। और वह बेआवाज़ सिसकने लगी। राकृष्णन ने खीझकर उसका हाथ परे हटा दिया।
‘‘अब, इतनी-सी बात पर रोना-धोना मच गया।’’
वह चुपचाप आँसू बहाती रही।
‘बात उसके लिए इतनी-सी होगी। पर मेरे लिए तो बड़ी है। यहाँ जो सुख नहीं मिल सकता। वहाँ मिल सकेगा। यह क्या छोटी बात हुई ? मेरी जड़े तो अब भी वहीं हैं। मैं एकदम उखड़कर नहीं अलग हो सकती। आपने मुझे इन्सान समझा ही कब ? मैं तो ख़रीदी हुई वस्तु हूँ आपकी सम्पत्ति, जिसकी न कोई इच्छा है न आकांक्षा।’
सोच-सोचकर उसे और रोना आ गया।
‘‘बस पन्द्रह दिन की ही तो बात है। मैं सूर्या को लेकर हो आती हूँ। यहाँ महराजिन है ही। ऊपर की देखरेख अम्मा जी कर लेगीं। मेरे न रहने की कोई तकलीफ़ नहीं होगी। प्लीज़ मैं हो आऊँ ?’’
अपनी जायज माँग के लिए भी उसे इस तरह गिड़गिड़ाना पड़ रहा है। स्थिति की दयनीयता ने उसे और खिझा दिया।
‘‘सूर्या को वहाँ तकलीफ़ होगी।’’
उसने इस अपमान को बमुश्किल निगला। ‘‘कैसी तकलीफ़ ?’’
‘‘वहाँ पलँग और गद्दे तो हैं नहीं। यहाँ जैसा खाना उसे मिलता है वहाँ, क्या खाक़ मिलेगा।’’
‘‘मैं भी तो वहीं पली हूँ। क्या मैं स्वस्थ नहीं।’’ वह खीझकर पलट गयी। उसे लगा इसके साथ तर्क करने से कोई हल नहीं निकलेगा।
इस तरह के पति के रहते कैसे उसने इतनी ऊँची कल्पनाएँ कर डालीं। उसे अपने ऊपर आश्चर्य हुआ।
रामकृष्णन के हाथ उसकी कमर के इर्द-गिर्द कस गये। ‘‘इधर तो देखो।’’ वह झट पलट गयी। ‘‘ठीक है, हो आओ।’’
उसे आश्चर्य हुआ। यह क्या उसी के वाक्य हैं ? उसे जैसे विश्वास नहीं हुआ। उसने उसकी छाती में मुँह छिपा लिया। ‘‘थैंक यू।’’
‘सिर्फ़ पन्द्रह दिन, इससे ज़्यादा नहीं।’’
‘‘ठीक है।’’
उसके सामीप्य में एक विजेता का-सा भाव था। उसके दर्प को महसूस करते हुए उसके होठों पर हलकी-सी मुस्कान तिर गयी।
जाने कितने अंहकार पाल रखे हैं लोगों ने। धनी और पुरूष होने का अंहकार। यह अहंकार ही तो आत्मा की दृष्टि पर परदा डाल देता है। हे ईश्वर, तुम ही रक्षा करना। दूसरों की भावनाओं की कद्र न करने की इनकी आदत तुम ही बदल सकते हो।
सुबह आँख खुलते ही सहसा याद आया। वह घर जा रही है। मन जैसे उड़ान भरने लगा। माँ को आज ही लिख देगी कि वे दोनों आ रहे हैं। माँ तो खुशी से झूम उठेगी। तरह-तरह के पकवान बनाना शुरू कर देगी। उसके हाथ के पकवानों का स्वाद भी तो निराला होता है। उनके प्रेम की तो जैसे कोई बराबरी नहीं हो सकती । उस प्रेम की याद आते ही उसकी आँखें पनियाने लगीं है।
उस दिन सुबह से ही उसकी साँस उखड़ी-उखड़ी रही। वह समझ गयी कि रामकृष्णन ने माँ को बता दिया होगा। बहू को मायके भेजते यह लोग इतना क्यों सोचने लगते हैं। इन्हें आपत्ति भी किस बात की हो सकती है ? महरी को छुट्टी देना हुआ तो भी वे कंजूसी बरतती हैं। कुछ वैसी ही उदासीनता उसे घर भेजते भी होती है। यह भी एक तरह की गुलामी है।
‘‘सुना है, कि माँ के घर जा रही हो ?’’
क्या जवाब दे वह तय नहीं कर पायी।
‘‘मैंने सोचा नहीं, आपके बेटे से पूछा था।’’
‘‘बिस्तर पर इस तरह के सवाल करोगी तो वह न थोड़े न करेगा।’’ उसका चेहरा लाल हो गया। इनमें तो बात करने की तमीज़ भी नहीं है। कैसे कह लेते हैं अपने को बड़ा आदमी ? उसे क्रोध आया।
चुपचाप मुँह लटकाकर अपने काम में लगी रही।
‘‘ठीक है, मुझे क्या ? वहाँ डेरा मत डाल लेना।’’
‘‘बस पन्द्रह दिनों की ही तो बात है। सूर्या के स्कूल भी तो खुल जाएँगे।’’
‘‘उससे ज़्यादा वहाँ धरा भी क्या है ?’’ उसने होंठ काट लिये।
इस तरह की बातें सुनने की वह आदी हो गई है। शालीनता और प्यार भरा व्यवहार कैसा होता है। वह खुद भूल गयी है। इस बार घर जाना तो किसी तीर्थ यात्रा की तरह होगा। जड़ होते मन की चेतना जैसे जगानी है।
अगले एक सप्ताह में रामकृष्णन और उसकी माँ सामान्य हो गये थे। बार-बार उसे यूँ ही समझाते रहे मानो वह किसी घोर अरण्य में सूर्या को लिये जा रही है।
घर ख़त दिया था। तार भी सुरक्षा के लिये दे दिया था। सामान समेत स्टेशन जाते हुए उसकी और सूर्या की मन:स्थिति लगभग एक ही थी। हर बात पर आश्चर्य। जैसे उम्र के पन्द्रह वर्ष कहीं माइनस हो गये हैं।
बाबू स्टेशन आये थे। उनके सफ़ेद बाल और धोती देखकर भीतर का प्रवाह उमड़ आया। कितने दुबले हो गये हैं वे ! मन अवसाद से भर आया है।’’
‘‘आओ बिटिया ! अरे मुन्नू। ख़ूब लम्बा निकल आया है।’’
‘‘हाँ। दो साल हो गये हैं न। आप कैसे हैं बाबूजी ?’’
‘‘बस ठीक ही हूँ बिटिया। थोड़ा-सा हाई ब्लड प्रेशर है। कभी-कभार तंग करता है, बस।’’
‘‘और माँ ?’’
‘‘भगवान की दया से सब ठीक-ठाक है। ’’
बाबूजी टैक्सी ढ़ूँढ़ने लगे।
‘‘टैक्सी नहीं चाहिए। ताँगे में ही चलते हैं।’’
‘‘क्यों बिटिया, तुम्हें तकलीफ़ तो नहीं होगी ?’’
‘‘न, मुझे तो अच्छा लगेगा।’’
‘‘और सूर्या ?’’
‘‘मुझे भी अच्छा लगेगा।’’
ताँगे में जाने की कल्पना मात्र से उसका मन उछल गया। ताँगे में हिचकोले लेकर जाते हुए दोनों ओर रास्ते में सिर निकाले खड़े नीम और बकायन के पेड़ और साथ ही कल-कल करता नाला ! मन की सारी खिन्नता दूर हो गयी और मन उत्साह से भर आया।
माँ बाहर ही खड़ी थीं। अपनी चिर-परिचित हँसी के साथ।
‘‘आओ मालती ! आ जा मुन्नू !’’
इससे पहले कि सूर्या उतरता, माँ ने लपककर उसे पकड़ लिया।
मालती ने भीतर आकर दोनों को प्रणाम किया। माँ ने आँखों में आँसू भरकर उसे पास खींच लिया। मन में लाख सन्ताप हो पर वे लोग एक सवाल नहीं करेंगे। यही तो सज्ज्नता है इनकी !
‘‘तुम्हारे पति और सास तो ठीक हैं न ?’’
‘‘हाँ, ठीक ही हैं।’’
अगर वह कह दे उसे उनकी याद तक नहीं आती तो कितना चौंक जाएँगे ये लोग।
‘‘तुम्हारे लिये चने की मँगौड़ी का साँबर बना रखा है।’’
‘‘ओह माँ !’’
हाथ-मुँह धोकर कॉफ़ी पीने के बाद सूर्या का हाथ खींचकर बग़ीचे की ओर भग गयी। उसी कल्पना में फैला वह पीपल, पक्षी, ढेरों फूल, तितलियाँ हू-ब-हू वैसे ही थे यथार्थ की तरह। उनमें से एक की कमी खलने लगती। सूर्या तितलियों के पीछे भाग रहा था।
‘‘देखा न सूर्या, यह गाँव कितना सुन्दर है !’’
‘‘हाँ माँ, बहुत अच्छा लग रहा है।’’ उसका चेहरा और खिल गया।
‘‘पन्द्रह दिन से अधिक वहाँ रखा ही क्या है ?’’ उस वाक्य को याद कर हँसी आ गयी। पीपल के पक्षी पाइप से निकलती धार में अठखेलियाँ कर रहे थे। फिर जैसे वाक्य याद आ गये। केवल कौओं और गौरेयों की पहचान रखनेवाले यही तो कह सकते हैं।
‘‘मालती चलो, नहा-धोकर खाना खा लो। ठण्डा हो जाएगा।’’
‘‘अभी आयी।’’
सूर्या को लगभग अपने साथ घसीटती हुई भीतर आयी। समय को जैसे पंख लग गये। सारा दिन दुनिया भर की बातें होतीं। बग़ीचे की सैर की जाती और शाम होते ही वे मन्दिर हो आते। दिन इतने सुहावने कब से होने लगे ! एक सप्ताह बाद वापस लौटने की कल्पना से ही कहाँ भीतर कुछ दरक गया। पन्द्रह दिनों का अवकाश उन्हीं लोगों की अनुकम्पा है। यह बात बार-बार कचोटने लगी।
उस दिन सूर्या कुछ सुस्त था। तितलियों के पीछे भागने की शक्ति जैसे चुक गयी थी। बग़ीचे के कोने में दुबककर बैठ गया।
‘‘बैठ क्यों गये ?’’
‘‘आज तो बैठकर ही देखने का मन हो रहा है। बैठकर देखने में तो ये चीजें और भी सुन्दर लगती हैं।’’
वह हँसती हुई उसके पास बैठ गयी।
‘‘माँ, मुझे यह गाँव अच्छा लगता है।’’
‘‘और मुझे भी।’’
‘‘हम यहाँ रह जाएँ तो।’’
कैसे बेटा, तुम्हें तो अच्छे स्कूल में पढ़ना है। पापा जहाँ हैं वही तो रहना होगा न हमें।’’
वह जैसे किसी सोच में पड़ गया। देखता ही रहा। फिर धीरे से बोला, ‘‘यहीं रहेंगे।’’
उसे आश्चर्य हुआ। इस बच्चे की आँखों में पता नहीं क्या-क्या बैठ गया है ! इसके फूल से कोमल मन में किसी विचार का बीज तो नहीं पड़ गया ! उसकी उदासी और इच्छाओं को समझने तो नहीं लगा।
‘‘माँ, सिर भारी हो रहा है।’’ झट उसकी चेतना लौट आयी।
‘‘क्यों बेटे ?’’
उसने माथे पर हाथ रखा। हल्का-सा बुखार था।
‘‘भीतर चलो। यहाँ धूप में नहीं बैठेंगे। दवाई देती हूँ। थोड़ी देर सो लो। ठीक हो जाएगा। पेट भी तो ख़ाली है।’’ उसने रसम चावल खिलाये। सूर्या ने तुरन्त उलट दिया। उसे चिन्ता हुई। सिरदर्द की गोली देकर सुला दिया। माँ ने छूकर देखा, ‘‘हल्का बुख़ार है। मैं काढ़ा बना देती हूँ, बस ठीक हो जाएगा।’’
थर्मामीटर लगाया तो 100 डिग्री बुख़ार निकला। काढ़ा पिलाने के बाद वह लाख मनौतियाँ करती रही थी। सुबह तक बुख़ार नहीं उतरा तो अस्पताल ले जाएगी। खाना-पीना भूलकर उसके पास बैठी रही।
माँ ने थोड़ा झिड़क दिया, ‘‘बच्चा है, सर्दी-ज़ुकाम तो लगा ही रहेगा। इतने में ही घबरा जाती हो !’’
मन वाकई घबरा गया था। एक अनजाना भय जैसे भीतर बैठने लगा।
रात दस बजे के लगभग सूर्या का शरीर ऐंठने लगा। वह घबरा गयी। तुरन्त अस्पताल जाना चहती थी। बाबूजी जाने कहाँ से झट टैक्सी ले आये। बच्चे की आँखें बन्द थी। उसका मन रो उठा। ‘‘न भगवान्, इतनी सजा मत देना।’’
अस्पताल में डॉक्टर ने जाँच की। एक सुई लगा दी। अगले आधे घण्टे में सूर्या नहीं रहा। उसकी सारी चेतना जैसे सुन्न हो गयी । वह बेहोश हो गयी थी।
बैठक में लाश को घेरकर सभी रो रहे थे। पर उसे जैसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था।
‘‘यहीं रह जाएँगे।’’
कैसा वाक्य निकला था बच्चे के मुँह से ? क्या उसे मालूम था कि उसकी मौत इसी माटी में बदी है। अपनी इच्छानुसार जैसे मौत की जगह चुन ली थी। जो भी उसकी इच्छाएँ थीं, मानों इन दस दिनों में पूरी तरह भोग चुका था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। यहीं कहीं होगा। इसी माटी में, इसी बयार में, इन्ही धीमे-धीमे हिलती पंखुड़ियों के बीच !
‘‘इससे अधिक वहाँ रखा ही क्या है ?’’
वह चौंक गयी ! उसे तो शोक मनाने की भी स्वतन्त्रता नहीं रह गयी। इस मौत के लिए उसे जाने कितनों को जवाब देना होगा।
‘‘वहाँ सूर्या की देखभाल नहीं हो पाएगी। उसे पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाएगा।’’ रामकृष्णन की बातें याद आयीं और उसका दिल बैठने लगा। क्या कहेगी वह ! क्या जवाब देगी अगर पूछेंगे कि, ‘‘मैंने तो तभी कहा था। तुम्हें बच्चे की चिन्ता कहाँ थी । मायके का दुलार ही ज़्यादा लग रहा था।’’ क्या कहेगी वह ?
पर बच्चा तो यहाँ खुश था। क्या कमी थी। अच्छा खाता रहा। ख़ूब खेलता रहा मद्रास से ज़्यादा खुश यहाँ था। पर क्या वे लोग विश्वास करेंगे। यह भी कैसा बुख़ार था। 100 डिग्री का बुख़ार क्या आदमी को निगल सकता है ? किये पता था। उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे। हे भगवान्, ऐसा तूने क्यों किया ? मायके जाने की इच्छा इतनी अन्याय पूर्ण तो नहीं थी। पति और सास की अनिच्छा के बावजूद अपनी इच्छा पूरी करने की ज़िद ग़लत ही होगी। पर इतना बड़ा दण्ड है ! हे भगवान्, तुम निष्ठुर हो, अन्यायी हो।
बाहर गाड़ी के रूकने की आवाज। अपनी एम्बेसेडर की आवाज़ से वह खूब परिचित थी। उसकी घबराहट बढ़ गयी। जैसे उसने कोई हत्या कर दी हो। क्या जवाब देगी इन्हें ! पैरों की आहट....उसकी छाती पर हथौड़ों-सी पड़ रही थी।
रामकृष्णअन के चेहरे पर सदमे और शोक का भाव था। उसकी सास के चेहरे पर क्रोध झलक रहा था। दोनों को देखकर वह अपने को सँभाल नहीं पायी। फूट-फूटकर रोने लगी। रामकृष्णन लाश के पास नहीं गया। सीधा ससुर के सामने खड़ा हो गया।
‘‘मैं पूछता हूँ, क्या मतलब हुआ इसका ? दस दिन पहले मेरा बेटा भला-चंगा था। फिर यह सब कैसे हुआ ?’’
बाबूजी की आँखें लगातार बह रही थीं।
‘‘कल तो ठीक था, जमाई बाबू। कल शाम भी खेल रहा था।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘अरे रामकृष्णन, तेरी बीवी को तो बाग़ बगीचे का भूत सवार है। भूत की तरह रात दिन बग़ीचे में उछल रही होगी। बच्चा साथ ही था। किसी ज़हरीले कीड़े ने काट खाया होगा।’’
‘‘ऐसी बात नहीं समधिन जी। शाम हल्का बुख़ार था। डॉक्टर के पास चलने से पहले शरीर ऐंठने लगा। तुरन्त अस्पताल पहुँचकर घण्टे भर में प्राण निकल गये।’’
‘‘मैंने तो पहले ही कहा था, बच्चे की देखभाल नहीं हो पाएगी। पर कहाँ मानती तुम्हारी बीवी !’’
‘‘देर से ले गये होंगे। पता नहीं कैसा खैराती अस्पताल रहा होगा।’’
‘‘उन्हें क्या, चीज़ तो हमारी गयी।’’ सास ने ताना मारा।
उसका सिर और झुक गया। चीज़...! उसके घर की है। यह सोचकर अपमानित महसूस करने लगी। इन्सान हैं ये लोग। चार पैसे क्या हाथ में आ गये तुमने इन्हें सुनाने का मौक़ा दे डाला। तुम निष्ठुर हो भगवान्, बेवजह मेरे बेटे को मार डाला और इनके सामने मुझे अपराधिनी बना दिया !
वे अपनी बातें दोहराते रहे। जैसे साबित करना चाहते हों कि बेटे कि हत्या इन लोगों ने मिलकर की है। उसे खीझ हो आयी। सिर भारी होने लगा है। डर लगा, कहीं इनकी बातें सुनते-सुनते उसका मन भी बदल जाए। कहीं वह भी इनकी भाषा में बात करने लगे तो ? मन इतना कड़वा हो जाए कि उसकी दृष्टि भी बदल जाए और उसका सारा स्नेह भाव बदल गया तो ?
बच्चे का क्रिया कर्म निपट गये। उसे लगा जैसे उसने सूर्या को दान कर डाला है इसी माटी को, बयार और तितलियों को। घर लौटने के बाद एक-एक पल भारी पड़ने लगा। हर बात पर सूर्या की याद। सूर्या को यह पसन्द है। यह नापसन्द है। सूर्या को स्कूल की देर हो गयी। सूर्या के आने का वक़्त हो गया। हर समय वही सूर्या। सूर्या.....
‘‘हे भगवान्, उसे लौटा दो। वरना मैं तुम्हें छोड़ने वाली नहीं। तूने छल किया है मेरे साथ। मैं नहीं छोड़ूँगी। ये आँसू नहीं फूल हैं। इनकी माला पिरो रही हूँ। यह मेरा प्रलाप तुम्हारे लिये पढ़े गये श्लोक हैं। बस उसे वापस लौटा दो।’’ फिर छाती फटने लगती। मन के चारों ओर धुन्ध-सा कुछ छाने लगता। आँखों के सामने अँधेरा छा जाता।
‘‘बच्चा जन तो लिया, पर देखभाल नहीं हो पायी।’’ सास के ताने।
हे भगवान्, मुझे शक्ति दो। मैं आपकी शालीनता नहीं खोऊँ। सोच-सोच कर सिर फटने लगता ।
‘‘छाती फटी जा रही है । कैसा सोनचिरैया था ! कितनी लापरवाही बरती होगी। जो यूँ चला गया; हमारे पास होता तो ऐसा क्यों होता है !’’ सास कलपती।
तो क्या तुम लोग रोक लेते। कितना विश्वास है अपने बल पर। क्या रूपया इतना बल देता है ?’
रामकृष्णन क़रीब-क़रीब रोज़ ही चिल्लाता, तुम्हारी लापवाही ने ही बच्चे की जान ली।’’
सुनते-सुनते उसे भी लगने लगा कि बात सच है। अकेले में उसके सीने से चिपक कर आँसू बहाती ।
‘‘क्या सूर्या मेरा बेटा नहीं था। उसके जाने का दुःख मुझे नहीं है क्या ?’’
‘‘दुख से क्या होगा। ज़िम्मेदारी तो होनी चाहिए थी न !’’
मन में अपराध भावना इतनी बैठ गयी थी कि उसे उसकी बात सच लगने लगती। और ऐसे में और रोने लगती है। कभी-कभी तो रामकृष्णन भी पिघल जाता और उसे सहलाकर चुप कराता। उसे लगा कि इस तरह पिघलना भी स्पर्श के आकर्षण से जुड़ा है।
एक दिन सोते में लगा जैसे सूर्या बुला रहा है।
‘‘माँ, माँ...’’
‘‘क्या है बेटे !’’
‘‘तेरे पास आ जाऊँ ?’’
‘‘हाँ बेटे, आ जा।’’ जैसे ही उठकर हाथ फैलाने लगी, आँख खुल गयी।
शरीर में जैसे झुरझुरी फैल गयी। मन में कोई प्रवाह उमड़ पड़ा। बत्ती जलाकर सूर्या को खोजने लगी, जैसे वह कहीं छिप गया हो।
रामकृष्णन जग गया। भौंह सिकोड़ता बोला, ‘‘आधी रात में बत्ती जलाकर क्या कर रही हो ?’’
उसकी सचेतना लौट आयी। निःश्वास के साथ बत्ती बुझाकर लेट गयी। पर नींद कहाँ आती। मन जैसे भरा-भरा लग रहा था। लगा, सूर्या वाली बात सच है। मन बार-बार दोहरा रहा था।
हे भगवान् सूर्या को वापस कर दो।
अगले दिन रामकृष्णन को रात के सपने की बात सुनायी।
‘‘पागल हो रही है तू।’’
‘‘न, मुझे सच लग रहा है । सूर्या हमारे पास ज़रूर आएगा।
‘‘क्यों, फिर उसे मारने का इरादा है क्या ?’’
वह सहम गयी और आँखे भर आयीं। कैसे सम्भव हो पाता है इतना जहर उगलना। ये लोग तो मुझे सुना-सुनाकर मार ही डालेंगे। इतना अरोप की मैं पागल हो जाऊँगी किसी दिन !
‘‘फिर मारने का इरादा है क्या ?’’
उसका सिर फटने लगा। सारी यादें सारे आक्रोस जैसे फूटने को हो गया।
‘‘फिर मारने...’’
उसने सिर थाम लिया। कोई काम नहीं कर पायी।
सास ने वक़्त पर खाना खाया और आराम करने चली गयी। वह भ्रमित-सी बरामदे में ही बैठी रही। मनीप्लाण्ट की लम्बी बेलें सर्प-सी लगने लगी। मन में जैसे विचार कौंध गया। इसी घर में रहेगी तो सूर्या नहीं लौटेगा। वह झट उठी। भीतर का उफनता आक्रोश नहीं रूका, मनीप्लाण्ट को नोंच कर फेंकने लगी। बेडरूम में जाकर, एक सूटकेस में कुछ रूपये रख लिये। रेल के किराये भर का ख़र्च लेकर निकल पड़ी।
उसे यूँ अचानक सामने देखकर माँ और बाबूजी घबरा गये।
‘‘आओ बेटी, एक ख़त तो डाल देती, स्टेशन ही आ जाते।’’
वह बेहद थक गयी थी। उसे लगा उससे अब कोई सवाल नहीं करे।
‘‘लिखने का समय ही कहाँ रहा बाबूजी ?’’
‘‘इतनी भी क्या जल्दी थी ?’’
उसने उन्हें एक बारगी देखा। ‘‘सूर्या यहीं है बाबूजी। मुझे बेटे को देखने की जल्दी थी।’’ माँ और बाबूजी ने एक दूसरे की आँखों में कुछ परच लिया। आँखों के आँसू उसमें छिपा लिये। बाबूजी के पास आकर उसका कन्धा छू लिया।
‘‘हाँ बेटी। ठीक कह रही है तू। पहले हाथ मुँह धोकर कॉफ़ी पी लो।’’
‘‘मैं आइन्दा यहीं रहूँगी बाबूजी। सूर्या भी यहीं रहना चाहता है।’’
‘‘ठीक है। पहले कॉफ़ी पीकर सुस्ता लो।’’
कुएँ से पानी लेकर मुँह धोकर आ गयी।
कॉफ़ी देती हुई माँ की आँखों में आँसू थे। कॉफ़ी पीते ही जैसे आराम मिला। सहसा आँखों के आगे अँधेरा छा गया। पेट में कुलबुलाहट मचने लगी। कुएँ के पास पहुँचकर सारी कॉफ़ी उलट दी। माँ घबराती हुई आयी।
‘‘क्या हो गया री !’’
उसने कुल्ला किया और दोनों हाथों से पानी के छींटे मारने लगी। सहसा दिमाग़ में कुछ कौध गया। मन ही मन सवाल लगाया और सच खुलते ही वह पुलकित हो गयी। उसने प्यार से माँ को देखा और मुस्करा दी।
‘‘कुछ नहीं माँ, ठीक हूँ। देख लेना। अब से खुश रहूँगी।’’
‘‘चलो, भीतर चलकर लेट जाओ।’’
‘‘रूको, माँ। ज़रा बग़ीचे में टहल तो लूँ। मुझे कुछ भी नहीं हुआ। घबराओ मत।’’
माँ के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ मिटीं नहीं। वह पीपल के पेड़ के पास गयी। ये पेड़, पक्षी और फूल किसी दैवी प्रतिरूप से लगे और उसका मन भर आया। आँखों में आँसू गये।
-भगवान् तुम अपार करूणा के स्वामी हो। इसी पीपल के नीचे तो सूर्या ने उसे रोज़ कहा था, ‘‘यहीं रह जाएँगे।’’ उसके चेहरे पर हँसी तिर
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लोगों की राय
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